कालू, मोटू, नाटू, मीठा, छक्का, टिड्डी पहलवान और ना जाने क्या क्या! ये सब रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में सुने जाने वाले नाम हैं जो गाहे बगाहे आपके कानों में सुनाई दे ही जाते हैं। इनमें से कुछ का इस्तेमाल तो आप खुद ही करते होंगे। अब आप कहेंगे की इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है हम तो ये उन्हें सिर्फ प्यार से बुलाने की वजह से इस्तेमाल करते हैं या फिर हम सिर्फ मज़ाक में उन्हें ये कहते हैं। और ये कहते ही आप अपने सामाजिक दायित्व से मुक्त हो जाते हैं! पर असल में आप ‘रंगभेद’, ‘बॉडी शेमिंग’, या ‘हम और वे’ का फर्क करने वालों की भीड़ का हिस्सा जाने अनजाने में बन ही जाते हैं। और रही बात मज़ाक की, तो मज़ाक करना और किसी को नीचा दिखा के खुश हो लेने में बहुत फर्क है! खैर इस फर्क पर बात फिर कभी। फिलहाल जो अभी ताज़ा-तरीन मामला है वो ये की जितनी भी फेयरनेस क्रीम प्रोडक्ट्स हैं उन्होंने अपने प्रोडक्ट्स के नाम के आगे से ‘फेयरनेस’ को हटा दिया है।
तो क्या वाकई कुछ बदल जायेगा इससे?
ये पहल एक अच्छी शुरुआत है इसमें तो कोई दो राय नहीं। बस दिक्कत ये है की 40-45 साल लेट है। और इस देरी की वजह से ना जाने कितने लोगों की ज़िन्दगी पर कितना असर पड़ा है या आगे आने वाली पीढ़ी पर कितना असर पड़ेगा ये समझने की बात है।
पहले के दौर में दो परिवार के बड़े-बुज़ुर्ग शादी तय करते थे जहाँ उनका लड़का और हमारी लड़की होना काफी था बस जात एक ही होनी चाहिए(जात-पात की बात फिर कभी)। फिर धीरे धीरे वक़्त के साथ ज़्यादातर चीज़ें लगभग एक जैसी ही रहीं बस लड़की का गोरा होना जरुरी हो गया और लड़के का सिर्फ लड़का होना काफी। फिर सामाजिक परिवेश या बदलती लाइफस्टाइल के साथ मर्दों वाली फेयरनेस क्रीम भी बाज़ार में आ गयी। और अब लड़को का सिर्फ लड़का होना काफी नहीं रहा। टॉल,डार्क एंड हैंडसम से अब इनमे भी फेयर एंड हैंडसम वाली बात हावी हो गयी। मैं ये नहीं कह रहा की इन सबकी ज़िम्मेदार सिर्फ फेयरनेस क्रीम है पर गोरा है तो बेहतर है वाली सोच कब समाज पर हावी हो गयी इसकी बड़ी वजह ये ब्यूटी प्रोडक्ट जरूर हो सकते हैं। क्योंकि इनके ज्यादातर विज्ञापन यही बताते नज़र आते हैं की उनका लीड एक्टर या एक्ट्रेस के पास पहले कुछ नहीं था क्योंकि उनका रंग गोरा नहीं था फिर उसने उस ब्यूटी प्रोडक्ट का इस्तेमाल किया और फिर गोरा होते ही उसकी ख्वाइशें पूरी हो जाती थी जो वो चाहते या चाहती थीं।
हम सबकी सोच पर ये इतना हावी हो चूका है की जैसे गोरा कोई रंग नहीं एक स्किल हो गयी हो।आज भी हम अपने आस पास ज्यादातर उन्ही को पसंद करते हैं जो गोर या साफ़ रंग के हों या फिर हम ये मान लेते हैं की ये गोरा है तो अच्छा ही होगा। स्टूडेंट होगा या होगी तो ये पढ़ने में ठीक होगा या होगी। ऑफिस में साफ़ रंग वालों के बारे में भी ज्यादातर यही राय होती है की ये काम अच्छा ही करता होगा या होगी। और तो और कई जगह इनको इनके रंग की वजह से प्राथमिकता भी इन्हे पहले मिल जाती है।
आने वाले समय में लोग इस सोच के प्रति कितने जागरूक होते हैं या इसे बदलने की कोशिश करते हैं ये तो मैं नहीं जानता। पर जो गोरे या साफ़ नहीं हैं उनके लिए मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ की दोस्त, इस दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने रंगरूप से ज्यादा स्किल्स को महत्व दिया है बस तुम इंतज़ार करो की कब तुम उनसे टकरा जाते हो। क्योंकि ज़िन्दगी एक आशा या एक अच्छी उम्मीद से ज्यादा कुछ नहीं।