Cow in Inida

मैं गाय हूँ। यही मेरा नाम है। इन्सान और इंसानियत से ज़्यादा ही पुराना है मेरा अतीत। क़ुदरत ने मुझे प्राणिजगत में जगह दी। फिर मैं जन्तु साम्राज्य में रीढ़धारी, स्तनधारी, शाकाहारी चौपाया के परिवार का सदस्य बनी। मनुष्य को मैंने उस युग से देखा है जब वो आदि मानव था। जंगल में नंग-धड़ंग घूमता था। छोटा-मोटा शिकार करके अपना पेट भरता था। कालान्तर में जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई, उसने औज़ार बनाये, खेती-बाड़ी सीखी और परिवार-समाज की रचना की। जैसे-जैसे इंसान समझदार बना, उसे मेरी शराफ़त और सज्जनता ने आकर्षित किया। उसने मेरे शील-स्वभाव को पहचाना।

मुझे साथ रहने के लिए अपने-अपने घरों में ले गया। मैं भी सीधी-साधी थी। चल दी उसके साथ। जंगल में खाने-पीने की तो कोई दिक़्क़त थी नहीं। लेकिन शिकारी जानवरों से ख़ुद को और अपने क़ुनबे को बचाना, मेरे लिए हमेशा बहुत मुश्किल था। इसीलिए मुझे लगा कि इंसान के साथ मेरी निभ जाएगी। इस तरह मैं जानवर से पालतू पशु बन गयी। इंसान मुझे भोजन और संरक्षण देता। बदले में मैं उसे दूध, बैल, साँढ़ और गोबर देती।

ऋग्वैदिक काल (6000 ईसा पूर्व) तक आते-आते मेरा गौवंश इंसान की अर्थव्यवस्था की धुरी बन चुका था। मानव के लिए मैं समृद्धि का प्रतीक थी। ऋग्वैदिक काल में मौजूदा अफ़ग़ानिस्तान से लेकर पंजाब तक बसे लोग आर्य कहलाये। आर्य प्राकृतिक शक्तियों जैसे इन्द्र, वरूण, अग्नि आदि की ही पूजा करते थे। क्रमागत देवताओं ब्रह्मा-विष्णु-महेश का अभ्युदय तब तक नहीं हुआ था। कर्मकांडों की प्रमुखता नहीं थी। कबीलाई शासन था। सैनिक भावना प्रमुख थी। राजा वंशानुगत तो होता था। लेकिन जनता उसे हटा सकती थी। वह क्षेत्र विशेष का नहीं बल्कि जन विशेष का प्रधान होता था। राजा युद्ध का नेतृत्व करता था। उसे कर वसूलने का अधिकार नहीं था। जनता ने जो स्वेच्छा से दिया, उसी से उसका खर्च चलता था। कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था थी। पितृसत्तात्मक समाज था। संयुक्त परिवार और वर्णाश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) की प्रथा मनुष्य विकसित कर चुका था।

ऋग्वैदिक काल में गाय यानी मैं, व्यापार और विनिमय की प्रमुख इकाई बन चुकी थी। अतिथि सत्कार की परम्परा का बहुत महत्व था। भिखारी और कृषि-दास नहीं थे। सारथी और बढ़ई समुदाय को विशेष सम्मान प्राप्त था। छूआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और बाल विवाह का नामो-निशान नहीं था। महिलाओं को शिक्षा, उपनयन संस्कार और स्वयंवर का अधिकार था। विधवा, नियोग, गन्धर्व और अन्तर-जातीय विवाह प्रचलित थे। जौ (यव) मुख्य अनाज था। सोम रस का चलन था। ऋग्वैदिक काल में गौमांस के सेवन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। लेकिन गायों का वध तभी किया जाता था, जब दूध देने की उनकी क्षमता ख़त्म हो जाती थी और उनके लिए बुढ़ापा काटना दूभर हो जाता था।

उत्तरवैदिक काल (4000 ईसा पूर्व) तक आते-आते इंसान बहुत बदल चुका था। लेकिन मैं और मेरा गौवंश पहले की ही तरह अर्थव्यवस्था की धुरी बने रहे। अब तक राम और कृष्ण का अवतार हो चुका था। पुराण, उपनिषद और अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी। वर्ण व्यवस्था बदल चुकी थी। सामाजिक श्रेष्ठता को व्यवसाय के जगह जन्म और ख़ानदान से जोड़ा जाने लगा था। वैदिक काल में अलग-अलग पेशों से जुड़े लोगों ने चारों वेदों की रचना की। गुरु-शिष्य परम्परा के तहत उसे कंठस्त कर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया। इसीलिए वेदों को ‘श्रुति’ कहा गया। लेकिन उत्तर वैदिक काल तक ब्राह्मणवादी व्यवस्थाएँ स्थापित हो चुकी थीं। ब्राह्मणों ने नये आराध्यों ख़ासकर, ब्रह्मा-विष्णु-महेश की कल्पना कर ली थी। अपने ही चुनिन्दा महान पूर्वजों को अवतार के रूप में स्थापित कर लिया था। कालान्तर में बहुत सारे देवी-देवता जन्म लेते चले गये। इंसान को पहले कर्मकांडों से बाँधकर धार्मिक चोला पहनाया गया। फिर इसी की आड़ में तरह-तरह के पाखंडियों ने भी अपनी रोटियाँ सेंकी।

इस समय तक आर्यों की सन्तानें जम्बूद्वीप के दूर-दराज के इलाकों में फैल चुकी थीं। जंगलों को काटकर खेत बनाये जाते। फिर गौवंश के ज़रिये ज़मीन को उपजाऊ बनाया जाता। उस दौर में मेरा गौवंश भी ख़ूब फैला। गायों की भारी संख्या सम्पन्नता का प्रतीक बन गयी। बाढ़, सूखा, भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं में जहाँ इंसान को नुकसान होता, वहीं मेरे गौवंश को भारी संकट झेलना पड़ता। तब ब्राह्मणों ने समाज के आर्थिक नुकसान को घटाने के लिए लोगों को ये सिखाना शुरू किया कि उन्हें गौमाँस से परहेज़ करना चाहिए। ये व्यवस्था कमोबेश ऐसी थी, जैसे आज भी भारतीय समाज में सोना बेचकर गुज़ारा करने को बहुत दर्दनाक माना जाता है। तब सोने जैसी ही प्रतिष्ठा मेरी भी थी, क्योंकि मैं गाय थी। सम्पन्नता का प्रतीक।

उत्तर वैदिक काल में स्थापित ब्राह्मणवादी परम्पराओं में धीरे-धीरे बहुत सारे विकार और पाखंड घुस गये। इन्हें दुरुस्त करने का बीड़ा उठाया गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी ने। उन्हें ऐसे लोगों का भरपूर समर्थन मिला जो अभी तक सनातन धर्म की उन परम्पराओं को मानते थे जो आर्यों के दौर से चली आ रही थी। समाज सुधार का एक पाठ अहिंसा और जीवों पर दया करने का था। इस पाठ ने मेरे गौवंश में धार्मिकता की नयी परम्पराओं को जोड़ा। अब गौमाँस को वर्ज़ित बताया जाने लगा। ताकि लोग गाय के रूप में मौजूद मेरे अर्थशास्त्रीय महत्व को गहराई से समझें।

‘धर्म-विरूद्ध’ व्यवहार नहीं करें। इसी दौर में बहुत सारे लोग मेरे यानी गाय के प्रति अपना स्नेह दिखाते हुए बूढ़ी गायों के वध से बचने लगे। इससे मेरा बुढ़ापा कष्टकारी बनने लगा। लेकिन यहीं ये मेरे धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक दोहन का नया युग शुरू हुआ। इंसान अब मुझे अर्थव्यवस्था की धुरी के साथ-साथ आस्था से भी जोड़ने लगा। इसमें हमारे ख़ानदान के मर्द ‘नन्दी’ की भी ख़ूब भूमिका रही। उसे इंसान के सबसे बड़े भगवान शिव की सवारी बनाकर पूजा गया।

भारत में मुस्लिम साम्राज्यों की शुरुआत तक गौमाँस भक्षण में न तो कुछ अच्छा था और न ख़राब। लेकिन अब इसमें धार्मिक तड़का लगने लगा था। कट्टरवादी मुस्लिम शासकों के राज में हिन्दू सहमे रहते थे। लेकिन उदारवादी मुस्लिम शासकों के दौर में गाय और गौमाँस को हिन्दू धार्मिकता से जोड़ने की कोशिश की गयी। ताकि धार्मिक एकता बनायी जा सके। इसी दौर में इंसान ने जंगली भैंसों को भी साधना सीख लिया। भैंसें हमारे मुक़ाबले ज़्यादा दूध देती थीं। जंगल में वो शिकारियों का मुक़ाबला गायों और साँढ़ों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ताक़तवर और संगठित तरीक़े से किया करती थीं। हालाँकि, शाकाहारी होने का उनका गुण, उन्हें भी हमारी तरह पालतू बनाये जाने के लिए पर्याप्त था। देखते ही देखते भैंसें भी इंसानों के घर में रहने लगीं। हमारे पड़ोसी खूँटों पर उन्हें भी बाँधा जाने लगा। लेकिन गौवंश से धार्मिकता को जोड़े जाने की वजह से भैंसों के मुक़ाबले हमारा रूतबा कहीं ज़्यादा था। अब तक हम पशु से आस्था बन चुकी थीं।

मुग़लकाल तक आते-आते कुछ ब्राह्मणों और उनके समर्थकों ने गौवध विरोधियों का एक नया वर्ग बनाने की क़वायद शुरू कर दी। इन्होंने माँसाहार का तो पूरी तरह से त्याग नहीं किया। लेकिन गौमाँस भक्षण करने वाले ब्राह्मणों को धिक्कारने लगे। देश के कुछ इलाकों ख़ासकर जहाँ सूखा पड़ने की आशंका ज़्यादा रहती और जहाँ रेगिस्तानी और पथरीली ज़मीन है, वहाँ के ब्राह्मणों ने किसी भी तरह के माँसाहार को अपने जीवन से बाहर कर दिया। क्योंकि उन्हें समाज और अर्थव्यवस्था की चिन्ता थी। जिसके केन्द्र में पहले की तरह मैं ही हुआ करती थी। ब्राह्मणों ने अपने प्रभाव को मज़बूत करने के लिए गौवंश को धार्मिक आचार संहिता का हिस्सा बना दिया। हालाँकि, देश के कई हिस्सों में गौमाँस और माँसाहार की सामाजिक परम्परा जारी रही। ब्राह्मण भी माँसाहारी बने रहे। आज भी हैं। लेकिन गौमाँस का सामाजिक चलन बहुत घट गया।

गौवंश का सहयोग और निरन्तर उन्नत होती कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की वजह से 17 वीं सदी में भारत पूरी दुनिया की एक-चौथाई आमदनी का उत्पादक बन गया। तब तक मैं यानी गाय आधुनिक मेकैनिकल और इलैक्ट्रिकल ऊर्जा का पर्याय बन चुकी थी। ऐसे में गौवध समाज शास्त्र और अर्थव्यवस्था दोनों ही दृष्टि से आत्मघात होता। ज़्यादातर मुसलमान शासक मतान्ध ज़रूर थे। लेकिन वो भारत के हो चुके थे। वो ऐसे बेवकूफ़ नहीं थे कि गौवध को उकसाकर अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारते। अँग्रेज़ों के आने के बाद भारत और मेरा दोनों का नसीब बहुत तेज़ी से बदला। वो अपने साथ औद्योगिक क्रान्ति को लेकर आये। उनका तो उद्देश्य ही भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था दोनों का विनाश करना था। सो उन्होंने बाक़ायदा गौवध को बढ़ावा दिया। उनके शासन में देश की अर्थव्यवस्था इस क़दर चरमरा गयी कि विश्व की आमदनी में भारत का हिस्सा घटकर 2 फ़ीसदी पर आ गया।

अँग्रेज़ों के जाने के बाद भारतवासियों ने फिर मेरे गौवंश की सुध ली। बहुत सारे राज्यों में गौकशी पर क़ानूनी रोक लग गयी। लेकिन इसी के साथ बूढ़े गौवंश की तस्करी और उन्हें कसाई घरों में भेजने का सिलसिला भी चोरी-छिपे एक अवैध कारोबार का रूप लेता चला गया। इससे मुझे साम्प्रदायिक प्रतीक बनाने वालों को ख़ूब फ़ायदा हुआ।

अब मैं ऊर्जा, विनिमय, खुशहाली की प्रतीक नहीं रही। अब मुझे प्यार और आदर देने के नाम पर ढकोसला ज़्यादा होने लगा। धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर मुझे पूज्यनीय भले ही बना दिया गया हो, लेकिन मेरे जैसी बेक़द्री शायद ही किसी और पशु की होती हो।

आज जब तक मैं इंसान की सेवा करने लायक रहती हूँ, तब तक तो वो मेरा ख़्याल रखता है। लेकिन ज्यों-ज्यों उम्र हम पर हावी होने लगती है, त्यों-त्यों हमारा जीवन नरक हो जाता है। पेट भरने के लिए हमें सड़कों पर भटकता पड़ता है। आते-जाते वाहन और इंसान सभी हमें दुत्कारते रहते हैं। सड़क पर दिखने वाली हरेक गाय कहने को पालतू है, लेकिन उसके पालनहार उसके साथ कितनी क्रूरता से पेश आते हैं, ये ज़रा कोई हमसे पूछे। साफ़ सुथरा चारा खाने वाले, कैसे कूड़े-कचरों में मुँह मारकर पॉलीथीन की थैलियों समेत सड़े-गले को खाकर अपना पेट पालते हैं, क्या इंसान इसे कभी समझ पाएगा?

गायों का बुढ़ापा जितना कष्टकारी जीवन शायद ही किसी और प्राणी का होता हो। पता नहीं, इंसान के धार्मिक ठेकेदारों को हम पर कभी तरस भी आएगा या नहीं? फिलहाल, तो उसे तरह-तरह की रार-तकरार से ही फ़ुर्सत नहीं है।

Mukesh Kumar Singh मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार
मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
One thought on “गाय की आत्मकथा: जानवर से पशु, आस्था और साम्प्रदायिक पाखंड बनने का सफ़र”
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