अभी हाल ही में महामारी के दौरान आप सभी को पता लगा… की लोग शहर छोड़ अपने-अपने गाँव लौट रहे है। और उनमें जो मजदूर थे वो ज़्यादातर बिहार से ताल्लुक रखते थे। ख़ैर ये तो बात थी उनके लौटने की।उनके अपने गाँव छोड़ शहर जाने की कहानी भी बहुत लम्बी है …पर उसके बारे में बात फिर कभी।
फिलहाल उन्हीं लम्बी कहानियों में से एक कहानी हैं, बिहार के “गया” ज़िले की राजधानी पटना से 200 किमी दूर बांकेबाज़ार प्रखंड की कहानी हैं।
यहाँ पर रहने वाले लोगों की ज़िन्दगी खेती पर ही निर्भर हैं और खेती निर्भर है पानी पर… यानी सिंचाई पर। और यहीं से शुरू होती है यहाँ पर रहने वाले लोगों के संघर्ष की कहानी।
यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। मगर धान और गेहूं की खेती के लिए जो पानी उन्हें चाहिए था उस पानी और वहाँ रहने वालों के बीच जो सबसे बड़ा रोड़ा था वो था एक “पहाड़” ।
और यहीं से शुरू होती है देश के दूसरे दशरथ मांझी लौंगी भुइंया की कहानी।
पानी की किल्लत की वजह से वहां से लोगों का पलायन शुरू हुआ,और पलायन का असर उनके घर तक आ पहुंचा।
यहाँ तक की उनके खुद के बेटों ने भी वो गाँव छोड़ दिया। फिर एक दिन हुआ यूँ की लौंगी भुइंया उसी पहाड़ पर बकरी चरा रहे थे की अचानक उनको ख्याल आया की अगर ये पहाड़ तोड़ दिया जाए तो पलायन रुक सकता है।
उस दिन उस ख्याल ने उन्हें ढंग से सोने नहीं दिया। उनकी पत्नी ने भी उनसे कहा की…. ये तुमसे नहीं हो पायेगा । पर लौंगी भुइंया को अपनी ज़िद्द के आगे कुछ समझ नहीं आया।
फिर क्या था…. फावड़ा उठाया और चल दिया पहाड़ तोड़ने।
30 साल अकेले फावड़े और दूसरे औज़ारों से उन्होंने आज 3 किमी लम्बी नहर खोद डाली और पानी गाँव तक पहुंचा दिया। इस साल पहली बार उनके गाँव तक बारिश का पानी पहुंचा और इसी वजह से आसपास के तीन गाँव के किसानों को भी इसका लाभ मिल रहा हैं। लोगों ने इस बार धान की फसल भी उगाई है। पर अफ़सोस की अब तक गाँव के कई लोग दूसरे शहरों में पलायन कर चुके हैं।
लौंगी भुइंया के साथ के लोग शायद अब उनके साथ न हों पर आने वाली उस गाँव की पीढ़ी “लौंगी भुइंया” का हमेशा शुक्रगुज़ार रहेगी।
लौंगी भुइंया कहते हैं “हम एक बार मन बना लेते हैं तो पीछे नहीं हटते। अपने काम से जब फुर्सत मिलता हम नहर काटने में लग जाते।
हमारी पत्नी कहती थी की तुमसे नहीं हो पायेगा…. लेकिन मुझे लगता था की हो जायेगा।